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संगति भई तो क्या भया हिरदा भया कठोर
नौ नेजा पानी चढ़ै तऊ न भीजै कोर
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कबीर संगत साध की हरै और की ब्याधि
संगत बुरी असाध की आठो पहर उपाधि
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सुखिया सब संसार है खावै औ सोवै
दुखिया दास 'कबीर' है जागै औ रोवै
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गुरू समरथ सिर पर खड़े कहा कमी तोहि दास
ऋध्दि सिध्दि सेवा करैं मुक्ति न छाड़ै पास
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कबीर गुरू सब को चहैं, गुरू को चहै न कोय
जब लग आस सरीर की तब लग दास न होय
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यही प्रेम निरबाहिये रहनि किनारे बैठि
सागर तें न्यारा रहा गया लहरि में पैठि
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एक सीस का मानवा करता बहुतक हीस
लंकापति रावन गया बीस भुजा दस सीस
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देखत देखत दिन गया निस भी देखत जाय
बिरहिन पिय पावै नहीं बेकल जिय घबराए
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'कबीर' ख़ालिक़ जागिया और न जागै कोय
कै जागै बिषया भरा कै दास बंदगी जोय
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जोगी जंगम सेवड़ा सन्यासी दरवेश
बिना प्रेम पहुँचै नहीं दुरलभ सतगुरु देस
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चूड़ी पटकों पलँग से चोली लाओं आगि
जा कारन ये तन धरा ना सूती गल लागि
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पतिबरता बिभिचारिनी एक मंदिर में बास
वह रँग-राती पीव के ये घर घर फिरै उदास
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पीया जाहै प्रेम रस राखा चाहै मान
एक म्यान में दो खड़ग देखा सुना न कान
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सेवक सेवा में रहै सेवक कहिये सोय
कहै 'कबीर' सेवा बिना सेवक कबहुँ न होय
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कीड़े काठ जो खाइया खात किनहूँ नहिं दीठ
छाल उपारि जो देखिया भीतर जमिया चीठ
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अधिक सनेही माछरी दूजा अल्प सनहे
जबहीं जल तें बीछुरै तबही त्यागै देंह
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अँखियन तो झाँईं परी पंथ निहार निहार
जिभ्या तो छाला परा नाम पुकार पुकार
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कबीर चिनगी बिरह की मो तन पड़ी उड़ाय
तन जरि धरती हू जरी अंबर जरिया जाय
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मन दीया कहुँ औऱही तन साधुन के संग
कहै 'कबीर' कोरी गजी कैसे लागै रंग
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मरिये तो मरि जाइये छुटि परै जंजार
ऐसा मरना को मरै दिन में सौ सौ बार
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बिरह जलन्ती देखि कर साईं आये धाय
प्रेम बूँद से छिरकी के जलती लई बुझाय
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प्रेम पाँवरी पहिरि कै धीरज काजर दैइ
सील सिंदूर भराइ कै यों पिय का सुख लेइ
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प्रेंम छिपाया ना छिपै जा घट परघट होय
जो पै मुख बोलै नहीं तो नैन देत हैं रोय
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सब आये उस एक में डार पात फल फूल
अब कहो पाछे क्या रहा गहि पकड़ा जब मूल
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'कबीर' खाई कोट की पानी पिवै न कोय
जाइ मिलै जब गंग से सब गंगोदक होय
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आया प्रेम कहाँ गया देखा था सब कोय
छिन रोवै छिन में हँसै सो तो प्रेम न होय
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कायथ कागद काढ़िया लेखा वार न पार
जब लगि स्वास सरीर में तब लगि नाम सँभार
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प्रेम भाव इक चाहिये भेष अनेक बनाय
भावे गृह में बास कर भावे बन में जाय
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बिरहा बिरहा मत कहों बिरहा है सुल्तान
जा घट बिरह न संचरै सो घट जान मसान
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सुरत समानी नाम में नाम किया परकास
पतिबरता पति को मिलि पलक ना छाडै पास
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माली आवत देखि कै कलियाँ करैं पुकारि
फूली फूली चुनि लिये काल्हि हमारी बारि
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सब कछु गुरू के पास है पइये अपने भाग
सेवक मन से प्यार है निसु दिन चरनन लाग
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उत्तम प्रीति सो जानिये सतगुरु से जो होय
गुनवंता औ द्रब्य की प्रीति करै सब कोय
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नैनों की करि कोठरी पुतली पलँग बिछाय
पलकों की चिक डारि कै पिय को लिया रिझाए
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एकम एका होन दे बिनसिन दे कैलास
धरती अम्बर जान दे मो में मेरे दास
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प्रीति अड़ी है तुज्झ से बहु बहु कंत
जो हँस बोलौं और से नील रँगाओं दंत
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हँस हँस कंत न पाइया जिन पाया तिन रोय
हाँसी खेले पिय मिलैं तो कौन दुहागिनि होय
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गागर ऊपर गागरी चोले ऊपर द्वार
सुली ऊपर साँथरा जहाँ बुलाबै यार
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अंक भरी भरि भेंटिये मन नहिं बाँधै धीर
कह 'कबीर' ते क्या मिले जब लगि दोय सरीर
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'कबीर' चंदन के निकट नीम भी चंदन होय
बूड़े बाँस बड़ाइया यों जनि बूड़ो कोय
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'कबीर' नाव है झाँझरी कूरा खेवनहार
हलके हलके तिर गये बूड़े जिन सिर भार
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बिरह जलन्ती मैं फिरों मो बिरहिनी को दुक्ख
छाँह न बैठों डरपती मत जलि उट्ठै रूक्ख
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नाम न रटा तो क्या हुआ जो अंतर है हेत
पतिबरता पति को भजै मुख से नाम न लेत
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काजर केरी कोठरी काजर ही का कोट
बलिहारी वा दास की रहै नाम की ओट
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जहाँ प्रेम तहँ नेम नहि तहाँ न बुधि ब्यौहार
प्रेम मगन जब मन भया तब कौन गिनै तिथि बार
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सुर नर थाके मुनि जना थाके बिस्नु महेस
तहाँ 'कबीरा' चढ़ि गया सत-गुरु के उपदेस
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ये तत्त वो तत्त एक है एक प्रान दुइ गात
अपने जय से जानिये मेरे जिय की बात
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जा घट में साईं बसै सो क्यों छाना होय
जतन जतन करि दाबिये तौ उँजियारा सोय
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दास दुखी तो हरि दुखी आदि अंत तिहुँ काल
पलक एक में परगट ह्वै छिन में करै निहाल
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सेवक कुत्ता गुरू का मोतिया वा का नाँव
डोरी लागी प्रेम की जित खैंचै तित जाव
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