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ग़ज़ल
नज़र वाले शरीक-ए-जल्वा-गाह-ए-तूर होते हैंकि हर महफ़िल के दुनिया में अलग दस्तूर होते हैं
नख़्शब जार्चवि
दोहा
गगन मध्य जो कंवल है बाजत अनहद तूर
गगन मध्य जो कंवल है बाजत अनहद तूरदल हजार को कमल है पहुंचै गुरू मत सूर
चरनदास जी
ना'त-ओ-मनक़बत
जल्वा तुम्हारे हुस्न का बाला-ए-तूर थावो किस का नूर था और वो किस का ज़ुहूर था
हामिद अ’ज़ीमाबादी
कलाम
बन कर मैं कभी मूसा सर-ए-तूर जा रहा हूँई'सा मैं कभी बन कर मर्दे जिला रहा हूँ
ज़ुहूरुल्लाह इफ़्तिख़ारी मुजीबी
दकनी सूफ़ी काव्य
पगदण्डी
यूँ च खाली सुन को होगे तूर के बाताँ तुमेंमू अँध्यारे आको देखो तूर बन जाती हूँ मैं
सुलैमान ख़तीब
ग़ज़ल
वो रुख़-ए-रौशन है शम्अ' तूर-क़द है नख़्ल-ए-तूरनूर के दो क़ुमक़ुमे ताबाँ हैं नख़्ल-ए-तूर पर
इब्राहीम आजिज़
सूफ़ी लेख
हज़रत शैख़ बू-अ’ली शाह क़लंदर
आतिश अफ़गन दर दिलम मानिंद-ए-तूरशो’ला बर ख़ेज़द-ओ-गर्दद ज़ंग दूर