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सूफ़ी लेख
मैकश अकबराबादी
मेरी उ’म्रें सिमट आई हैं उनके एक लम्हे मेंबड़ी मुद्दत में होती है ये उ’म्र-ए-जावेदाँ पैदा
शशि टंडन
ना'त-ओ-मनक़बत
बन गई हैं बज़्म-ए-हस्ती जगमगाने के लिए’आरिज़-ए-अहमद की तनवीरें सिमट कर आफ़ताब
अदीब सहारनपुरी
ना'त-ओ-मनक़बत
ख़ुद सिमट आता था मजमे' में ज़माना साराकितना पुर कैफ़ हुआ करता था ख़ुत्बा तेरा
उवेस रज़ा अम्बर
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ना'त-ओ-मनक़बत
उस के क़दमों में चली आती सिमट कर मंज़िलरास्ता जिस को मोहम्मद का मुयस्सर होता
आसिफ़ अहमद वारसी
ना'त-ओ-मनक़बत
नजफ़ बग़दाद तैबा कर्बला क्या क्या सिमट आएमेरी बालीं पे जब तशरीफ़ लाए शाह-ए-जीलानी
उमर लईक़ हुसैनी
ग़ज़ल
दिल के ज़र्रे मुंतशिर होकर मिले हैं ख़ाक मेंजो बिखर जाए वो शीराज़ा सिमट सकता नहीं
पीर नसीरुद्दीन नसीर
ग़ज़ल
सिमट आते हैं ख़ुदी ही मंज़िल-ए-जानाँ के नज़ारेगुज़रता है जहाँ हद्द-ए-जुनूँ से कोई दीवाना
अनवर फ़िरोज़पुरी
कलाम
यक़ीनन दफ़्तर कौनैन था मफ़्हूम हासिल मेंवो इक नुक़्ता जो फैला और सिमट कर रह गया दिल में
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
मिरी ’उम्रें सिमट आई हैं उन के एक लम्हे मेंबड़ी मुद्दत में होती है ये उ'म्र-ए-जावेदाँ पैदा