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ना'त-ओ-मनक़बत
दर-ए-मुर्शिद से दिल के तार जब टकराने लगते हैंतसव्वुर में ज़ियारत के मज़े हम पाने लगते हैं
अब्दुल ख़ालिक़ दानिश
ना'त-ओ-मनक़बत
कभी धरती से जाता है कभी अम्बर से जाता हैपयाम-ए-हक़ ज़माने में हर इक मंज़र से जाता है
अब्दुल ख़ालिक़ दानिश
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कलाम
न होगी रज़्म अगर तो बज़्म वज्ह-ए-बरहमी होगीकिसी सूरत से हो दुनिया तो इक दिन ख़त्म ही होगी
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
पस-ए-पर्दा तुझे हर बज़्म में शामिल समझते हैंकोई महफ़िल हो हम उस को तिरी महफ़िल समझते हैं
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
ना'त-ओ-मनक़बत
ऐसा हुआ न कोई भी शाह-ए-ज़मन के बा'दआया हो लौट कर जो ख़ुदा से मिलन के बा'द
अब्दुल ख़ालिक़ दानिश
कलाम
इम्दाद अ'ली उ'ल्वी
ना'त-ओ-मनक़बत
सुख़नवर है वही जो बज़्म में है मद्ह-ख़्वाँ तेरावही अहल-ए-ज़बाँ है नाम ले जिस की ज़बाँ तेरा
आशिक़ अली नातिक़
ना'त-ओ-मनक़बत
शाहिद-ए-हक़ आ’रिफ़-ए-फ़ख़्र-ए-ज़मन की बज़्म हैहोशियार ऐ नुत्क़ ये 'ख़्वाजा-हसन' की बज़्म है