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ग़ज़ल
अगर क़ल्ब-ओ-नज़र में वुसअ'तें हूँ तेरे जल्वों कीख़िज़ाँ को भी बहार-ए-जावेदाँ कहना ही पड़ता है
सूफ़ी तबस्सुम
ग़ज़ल
ये तेरे ख़याल की रिफ़अतें ये तिरी निगाह की वुसअ'तेंये तिरे शुऊ'र की अज़्मतें तेरा औज अर्श वक़ार है