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शे'र
अगर चाहूँ निज़ाम-ए-दहर को ज़ेर-ओ-ज़बर कर दूँमिरे जज़्बात का तूफ़ाँ ज़मीं से आसमाँ तक है
वली वारसी
शे'र
जफ़ा-ओ-जौर के सदक़े तसद्दुक़-बर-ज़बानी परसुनाते हैं वो लाखों बे-नुक़त इस बे-दहानी पर
कौसर ख़ैराबादी
शे'र
शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगीन ख़िरद की बख़िया-गरी रही न जुनूँ की पर्दा-दरी रही