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वो अ’ज़्म बाक़ी न रज़्म बाक़ी न शौकत-ओ-शान-ए-बज़्म बाक़ीहमारी हर बात मिट चुकी है कि हम को क़िस्मत मिटा रही है
हमें है घर से तअ'ल्लुक़ अब इस क़दर बाक़ीकभी जो आए तो दो-दिन को मेहमाँ की तरह
तिरे हाथ मेरी फ़ना बक़ा तिरे हाथ मेरी सज़ा जज़ामुझे नाज़ है कि तिरे सिवा कोई और मेरा ख़ुदा नहीं
बिकी मय बहुत फ़स्ल-ए-गुल में गराँजो सच पूछो फिर भी ये सस्ती रही
जब तलक मेरी ख़ुदी बाक़ी रही सब कुछ थारह गया फिर तो फ़क़त नाम-ए-ख़ुदा मेरे बा’द
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