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कलाम
फ़ना बुलंदशहरी
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फ़ना बुलंदशहरी
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अनवर फ़र्रूख़ाबादी
कलाम
ये है मय-कदा यहाँ रिंद हैं यहाँ सब का साक़ी इमाम हैये हरम नहीं है ऐ शैख़ जी यहाँ पारसाई हराम है
जिगर मुरादाबादी
कलाम
बस उसी ख़ता पे मिरे लिए मय-ए-ला-ला-गूँ है न जाम हैकि गदाई दर-ए-मय-कदा मरी तिश्नगी पे हराम है
इक़बाल सफ़ीपुरी
कलाम
बा-वज़ू हो कर पिएँ सब मय-कदे में मिल के मुलहो रहे हैं एक रिंद ’आरिफ़-ओ-’आक़िल के क़ुल
बाक़िर शाहजहांपुरी
कलाम
न है बुत-कदा की तलब मुझे न हरम के दर की तलाश हैजहाँ लुट गया है सुकून-ए-दिल उसी रहगुज़र की तलाश है