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Sufinama

शबनम तो बाग़ में है न यूँ चश्म-ए-तर कि हम

मीर मोहम्मद बेदार

शबनम तो बाग़ में है न यूँ चश्म-ए-तर कि हम

मीर मोहम्मद बेदार

MORE BYमीर मोहम्मद बेदार

    शबनम तो बाग़ में है यूँ चश्म-ए-तर कि हम

    ग़ुंचः भी इस क़दर है ख़ूनी जिगर कि हम

    जूँ आफ़्ताब उस मह-बे-मेहर के लिए

    ऐसे फिरे कोई फिरा दर-ब-दर कि हम

    कहता है नालः आह से देखें तो कौन जल्द

    उस शोख़ संग-दिल में करे तू है घर कि हम

    है हर दुर-ए-सुख़न पे सज़ा-वार गोश-ए-यार

    मोती सदफ़ रखे है पर ऐसे गुहर कि हम

    मुँह पर से शब-ए-नक़ाब उठा यार ने कहा

    रौशन-जमाल देख तू अब है क़मर कि हम

    ज़र क्या है माल तुझ पे करें नक़्द-ए-जाँ निसार

    इतना तो और कौन है सीम-बर कि हम

    ता-ज़ीस्त हम बुतों के रहे साथ मिस्ल-ए-ज़ुल्फ़

    यूँ उम्र किस ने की है जहाँ में बसर कि हम

    ग़ुस्सः हो किस पे आए हो जो तेवरी चढ़ा

    लाएक़ इ'ताब के नहीं कोई मगर कि हम

    'बेदार' शर्त है पलक से पलक लगे

    देखें तो रात जा के है या तू सहर कि हम

    स्रोत :
    • पुस्तक : दीवान-ए-बेदार संकलन: जलील अहमद क़िदवाई (पृष्ठ 53)
    • रचनाकार : मीर मोहम्मद 'बेदार'
    • प्रकाशन : हिन्दुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद (1937)

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