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अँधेरा पर अशआर

चारों-सम्त अंधेरा फैला ऐसे में क्या रस्ता सूझे

पर्बत सर पर टूट रहे हैं पाँव में दरिया बहता है

वासिफ़ अली वासिफ़

मैं अँधेरी गोर हूँ और तू तजल्ली तूर की

रौशनी दे जा चराग़-ए-रू-ए-जानान: मुझे

मुज़्तर ख़ैराबादी

निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ पर

अकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है

अकबर वारसी मेरठी

शब-ए-दैजूर अंधेरे में है बादल के निहाँ

लैला महमिल में है डाले हुए मुँह पर आँचल

मोहसिन काकोरवी

तुम अपनी ज़ुल्फ़ खोलो फिर दिल-ए-पुर-दाग़ चमकेगा

अंधेरा हो तो कुछ कुछ शम्अ' की आँखों में नूर आए

मुज़्तर ख़ैराबादी

बड़े ख़ुलूस से माँगी थी रौशनी की दुआ

बढ़ा कुछ और अँधेरा चराग़ जलने से

मुज़फ़्फ़र वारसी

आँख रौशन हो तो दुनिया के अँधेरे क्या हैं

रस्तः महताब को रातों की सियाही में मिला

मुज़फ़्फ़र वारसी

इक राज़ है 'मुज़्तर' तुर्बत का अंधेरा भी

आई है पए मातम का'बे की सियह-पोशी

मुज़्तर ख़ैराबादी

उठ के अँधेरी रातों में हम तुझ को पुकारा करते हैं

हर चीज़ से नफ़रत हम को हुई हम जन्नत-ए-फ़र्दा भूल गए

अब्दुल हादी काविश

ये अँधेरा पहले सूरज को चुरा ले जाएगा

फिर ज़माने से उजालों को उठा ले जाएगा

जौहर नूरी

जा को कोई पकड़े तो कैसे काम करत है नज़र आए

चुपके चुपके सेंध लगावे दिन होवे या अँधेरी रतियाँ

अब्दुल हादी काविश

धुआँ आहों का अपनी रंग लाया

अँधेरा हो गया है आसमाँ पर

शाह अज़िमाबादी

तुम आए रौशनी फैली हुआ दिन खुल गईं आँखें

अँधेरा सा अँधेरा छा रहा था बज़्म-ए-इम्काँ में

हसन रज़ा बरेलवी

ये रात क्यूँ हो अफ़ज़ल तमाम रातों में

लिए हुए हैं अंधेरे चराग़ हाथों में

मुज़फ़्फ़र वारसी

सर-ज़मीन-ए-शाम में तारा गिरा है टूट कर

या अँधेरी रात में जुगनू चमक कर रह गया

शाह नसीर

जीवन की उलझी राहों में जब घोर अंधेरा आता है

हाथों में लिए रौशन मशअ'ल तो गुरु हमारे मिलते हैं

अब्दुल हादी काविश

इस पाप की नगरी में हर ओर अंधेरा है

उजियार में बस वो है जो तुझ को पिया चाहे

अब्दुल हादी काविश

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