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जब्र पर अशआर

जब्रः जब्र अ’रबी ज़बान

से मुश्तक़ इस्म है।उर्दू में अ’रबी से माख़ूज़ है और अस्ली हालत और अस्ल मा’नी में ही बतौर-ए-इस्म मुस्ता’मल है। 1707 ई’स्वी में वली के कुल्लियात में इसका इस्ति’माल मिलता है। इसका लुग़वी मा’नी ज़ोर, ज़बरदस्ती, इकराह, ज़ुल्म वग़ैरा होता है। इसे क़द्र के मुक़ाबिल इस्ति’माल किया जाता है।

वाबस्ता है हमीं से गर जब्र है गर क़द्र

मजबूर हैं तो हम हैं मुख़्तार हैं तो हम हैं

ख़्वाजा मीर दर्द

उन के सितम भी सह के उन से किया गिला

क्यूँ जब्र इख़्तियार किया हाए क्या किया

बह्ज़ाद लखनवी

उस क़ादिर-ए-मुतलक़ के बंदे ही जो हम ठहरे

हँसते हुए सहना है हर जब्र-ए-मशीयत को

कामिल शत्तारी

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