ख़ूब सी तंबीह करना ऐ जुदाई तू मुझे
गर किसी से फिर कभी क़स्द आश्नाई का करूँ
पत्ते टूट गए डाली से ये कैसी रुत आई
माला के मनके बिखरे हैं दे गए यार जुदाई
फिर दर्द-ए-जुदाई का झगड़ा न रहे कोई
हम नाम तिरा ले कर मर जाएँ तो अच्छा हो
ज़ब्ह करती है जुदाई मुझ को उस की सुब्ह-ए-वस्ल
ख़्वाब से चौंक ऐ मोअज़्ज़िन वक़्त है तकबीर का
जुदाई में ये धड़का था कि आँच उन पर न आ जाये
बुझाई आँसुओं से हम ने आह-ए-आतिशीं बरसों
बर्क़ का अक्सर ये कहना याद आता है मुझे
तिनके चुनवाने लगी हम से जुदाई आप की
इधर तो आँखों में आँसू उधर ख़याल में वो
बड़े मज़े से कटी ज़िंदगी जुदाई में
मोहब्बत में जुदाई का मज़ा 'मुज़्तर' न जाने दूँ
वो बुलबुल हूँ कि गुल पाऊँ तो पत्ता दरमियाँ रक्खूँ
आह मिलते ही फिर जुदाई की
वाह क्या ख़ूब आश्नाई की
अगर एक पल हो जुदाई तेरी
तो सहरा मुझे सारा घर-बार हो
सितम करते मिल कर तो फिर लुत्फ़ था
जुदाई में क्या आज़माया मुझे
जुदाई में लब ख़ुश्क हैं चश्म तर हैं
इधर भी शह-ए-बहर-ओ-बर देख लेना
वस्ल ऐन दूरी है बे-ख़ुदी ज़रूरी है
कुछ भी कह नहीं सकता माजरा जुदाई का
जुदाई में न आना था न आई
मुझे ज़ालिम क़ज़ा ने मार डाला
अल्लाह-रे तारीकी-ए-ख़ुर्शीद-ए-जुदाई
है सुब्ह में अपनी शब-ए-दैजूर की सूरत
मज़ा में दम भरा वारिस की सच्ची आश्नाई का
ये क्या मा’लूम था हम को कि ग़म होगा जुदाई का
रहे वस्ल जब तक बक़ा से तुझे
न उस की हमारी जुदाई रहे
गर मिलूँ तो तुंद-ख़ू हो गालियाँ देते हो तुम
दूर रहने से सताती है जुदाई आप की