सुमन मिश्रा के सूफ़ी लेख
Jamaali – The second Khusrau of Delhi (जमाली – दिल्ली का दूसरा ख़ुसरो)
सूफ़ी-संतों ने हमें सिर्फ़ जीवन जीने की राह ही नहीं बतायी बल्कि अपने पीछे वह अपना विपुल साहित्य भी छोड़ गए जिनसे आने वाली पीढियाँ फैज़ हासिल करती रहीं. सूफ़ी-संतों का साहित्य पढ़कर बमुश्किल यक़ीन होता है कि उस दौर में उनके उठाये गए प्रश्न और उन प्रश्नों
हज़रत ग़ौस ग्वालियरी और योग पर उनकी किताब "बह्र-उल-हयात"
हज़रत ग़ौस ग्वालियरी शत्तारिया सिलसिले के महान सूफ़ी संत थे. शत्तारी सिलसिला आप के समय बड़ा प्रचलित हुआ. ग़ौस ग्वालियरी हज़रत शैख़ ज़हूर हमीद के मुरीद थे. अपने गुरु के आदेश पर आप चुनार चले गए और अपना समय यहां ईश्वर की उपासना में बिताया. चुनार में
Sheikh Naseeruddin Chiragh-e-Dehli
ग़यासपुर स्थित हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की ख़ानक़ाह- गर्मियों का मौसम था और दिल्ली गर्म तवे की तरह तप रही थी । दोपहर की इस चिलचिलाती धूप में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की ख़ानक़ाह के जमआत खाने में यह समय ख़ादिमों, मुरीदों और राहगीरों के सुस्ताने का समय होता था ।
ख़्वाजा शम्सुद्दीन मुहम्मद ‘हाफ़िज़’ शीराज़ी
लिसानुल-ग़ैब(‘अज्ञात का स्वर’ या स्वार्गिक रहस्यों के व्याख्याता) ख़्वाजा शमसुद्दीन मुहम्मद हाफ़िज़(1315-1390 ई.) ने आठवीं सदी हिजरों में अपनी ग़ज़लों से तसव्वुफ़ के एक बिल्कुल नए रहस्यमयी संसार का दरवाज़ा सबके लिए खोल दिया। हाफ़िज़ के जीवन के संबंध
ज़फ़राबाद की सूफ़ी परंपरा
जौनपुर से पूरब की ओर पांच मील की दूरी पर क़स्बा ज़फ़राबाद है . यह शहर जौनपुर से भी पुराना है और एक समय था जब यह एक बहुत बड़ा नगर था और इसकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई थी .यहाँ कन्नौज के राजा जयचंद और विजयचंद की सैनिक छावनियाँ थीं . उस काल में इसका
जौनपुर की सूफ़ी परंपरा
जौनपुर के प्राचीन इतिहास का अवलोकन करने से पता चलता है कि श्री राम चन्द्र जी के काल में यहाँ कुछ ऋषि निवास करते थे. महाभारत में इसका प्राचीन नाम यमदग्नि पुरा था जो संभवतः प्रख्यात ऋषि यमदग्नि के नाम पर आधारित है. वह वर्तमान जमैथा नामक स्थान पर निवास
समाअ और क़व्वाली का सफ़रनामा
दिल्ली में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह गंगा-जमुनी तहज़ीब और सूफ़ी संस्कृति का एक बुलंदतरीन मरकज़ है । यहाँ तमाम मज़हब के लोगों की आमद और अक़ीदत देखते बनती है । हर जुमेरात को ख़ासतौर से यहाँ क़व्वाली का आयोजन होता है जिसमें ख़ास-ओ-आम सबकी शिरकत होती है।
शैख़ फ़रीदुद्दीन अत्तार और शैख़ सनआँ की कहानी
शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार ने अपनी सूफ़ियाना शाइरी से फ़ारसी सूफ़ी साहित्य को विश्व भर में स्थापित कर दिया। शैख़ फ़रीदुददीन अ’त्तार के समक्ष मौलाना रूमी अपने आप को तुच्छ समझते थे – हफ़्त शहरे इश्क़ रा अत्तार गश्त मा हनुज़ अन्दर ख़म-ए-यक कूच:ऐम (अर्थात
क़व्वालों के क़िस्से
संगीतकार अपने पहले और बाद के युगों के बीच एक पुल का कार्य करते हैं। आने वाली पीढ़ी को अज्ञात के ऐसे पक्ष से भी अवगत करवाते हैं जो हमें कभी याद था पर आज हम उसे भूल चुके हैं। क़व्वालों का काम इस मामले में और भी अहम् यूँ हो जाता है क्यूंकि वह ऐसे लोगों
जिन नैनन में पी बसे दूजा कौन समाय
हज़रत अमीर ख़ुसरौ का उर्स आज से शुरूअ हो गया है. आज सुबह ही हमारी प्यारी सी डॉक्टर आंटी का फ़ोन आया कि कोरोना की सारी दवाइयाँ तत्काल प्रभाव से बंद कर दूँ. इसी महीने की 6 तारीख़ को मेरी रिपोर्ट पॉजिटिव आई थी और उसके बाद जैसे सब कुछ बदल गया. उस बीच मैं
ज़हीन शाह ताजी और उनका सूफ़ियाना कलाम
बाबा ताजुद्दीन नागपुरी महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत हुए हैं। मेहर बाबा ने इन्हें अपने समय के पाँच बड़े अध्यात्मिक गुरुओं में से एक माना है। महात्मा गाँधी भी बाबा ताजुद्दीन से मिलने जाया करते थे। बाबा ताजुद्दीन का व्यक्तित्व बड़ा रहस्यमयी रहा है। हजरत
Malangs of India
हिन्द में सूफ़ियों और संतों के बीच एक कहानी बहुत प्रचलित है – एक संत किसी शहर के जानिब बढ़ा जा रहा है . उसके आने की खबर जब उस शहर में रहने वाले एक दूसरे संत को होती है तो वह उसके लिए पानी से भरा एक प्याला भेज देता है .यह देखकर पहला संत मुस्कुराता है और
ख़्वाजा मीर दर्द और उनका जीवन
दिल्ली शहर को बाईस ख्व़ाजा की चौखट भी कहा जाता है। इस शहर ने हिन्दुस्तानी तसव्वुफ़ को एक नई दिशा दी। इस ने जहाँ क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी, ख्व़ाजा निज़ामुद्दीन औलिया, नसीरुद्दीन चिराग़-ए-दिल्ली और हज़रत अमीर ख़ुसरौ का ज़माना देखा है, वहीं यह शहर विभिन्न मतों
हज़रत शाह बर्कतुल्लाह ‘पेमी’ और उनका पेम प्रकाश
गीता में उल्लेख आया है क्षीणे पुण्ये, मृत्यु लोकं विशन्ति. कहते हैं कि देवताओं में केवल तीन तत्व होते हैं, जब यह क्षीण हो जाते हैं तो वह पांच तत्त्व की धरती पर फिर से पुण्य प्राप्त करने अवतरित होते हैं. इसीलिए धरती को कर्मभूमि भी कहते हैं. नश्वरता का
Indian Sufism
हिंदुस्तान सदियों से सांस्कृतिक चेतना एवं वैचारिक चिंतन की उर्वर भूमि रहा है. कोस कोस पर बदलती भाषाएं, पहनावे एवं मौसम इस संस्कृति की विविधता को जाने किस रंग में रंगते हैं कि दिलों में एकता और सद्भाव का रंग गाढ़ा और गाढ़ा होता चला जाता है. हिंदुस्तान में
शाह तुराब अली क़लंदर और उनका काव्य
सूफ़ी-संतों के योगदान को अगर एक वाक्य में लिखना हो तो हम कह सकते हैं कि सूफ़ी और भक्ति संतों ने हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब को नाम दिए हैं। ये नाम गंगा-जमुनी तहज़ीब को जोड़ कर रखने वाली कड़ियाँ हैं। सूफ़ी-संतों ने हिंदुस्तान में गंगा-जमुनी तहज़ीब
सन्यासी फ़क़ीर आंदोलन – भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम
बात उस समय की है जब अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान पर अपना अधिकार जमाने के पश्चात इसे लूटना प्रारंभ कर दिया था । हिन्दुस्तान की जनता उनके तरह तरह के हथकंडों से परेशान हो चुकी थी. । अंग्रेजों ने अपने साथ यहाँ के जमींदारों और साहूकारों को भी मिला लिया था और
आज रंग है !
रंगों से हिंदुस्तान का पुराना रिश्ता रहा है. मुख़्तलिफ़ रंग हिंदुस्तानी संस्कृति की चाशनी में घुलकर जब आपसी सद्भाव की आंच पर पकते हैं तब जाकर पक्के होते हैं और इनमें जान आती है. यह रंग फिर ख़ुद रंगरेज़ बन जाते हैं और सबके दिलों को रंगने निकल पड़ते हैं.
हिन्दुस्तानी क़व्वाली के विभिन्न प्रकार
हिंदुस्तान में क़व्वाली सिर्फ़ संगीत नहीं है। क़व्वाली इंसान के भीतर एक संकरे मार्ग का निर्माण करती है जिसमे एक तरफ़ खुद को डालने पर दूसरी और ईश्वर मिलता है। क़व्वाली की विविध विधाएं हिंदुस्तान में प्रचलित रही हैं। ये विधाएं क़व्वाली के विभिन्न अंग
मयकश अकबराबादी जीवन और शाइरी
हिंदुस्तान में सूफ़ी ख़ानक़ाहों का एक लम्बा और प्रसिद्ध इतिहास रहा है। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की ख़ानक़ाह हिंदुस्तान भर में प्रसिद्ध है जहाँ पर योगियों, सूफ़ियों और मलंगों का जमघट लगा रहता था। लंगर का चलन भी सूफ़ियों के द्वारा ही हिंदुस्तान में आया। ख़ानक़ाहें
भक्ति आंदोलन और सुल्ह-ए-कुल
भक्ति आंदोलन हिंदुस्तानी संस्कृति के सामान ही विविधताओं का पिटारा है। हिन्दू और मुसलमान भक्त कवियों ने जहाँ जात पात और मज़हब से परे मानवता और प्रेम को अपनाया वहीं सूफ़ियों से उनका प्रेम तत्व भी ग्राह्य किया। भक्ति आंदोलन की शुरुआत तो आठवी शताब्दी में ही
समाअ और क़व्वाली का सफ़रनामा
दिल्ली में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह गंगा-जमुनी तहज़ीब और सूफ़ी संस्कृति का एक बुलंदतरीन मरकज़ है । यहाँ तमाम मज़हब के लोगों की आमद और अक़ीदत देखते बनती है । हर जुमेरात को ख़ासतौर से यहाँ क़व्वाली का आयोजन होता है जिसमें ख़ास-ओ-आम सबकी शिरकत होती है।
ग्रामोफ़ोन क़व्वाली
क़व्वाली अरबी के क़ौल शब्द से बना है जिस का शाब्दिक अर्थ बयान करना है। इसमें किसी रुबाई या ग़ज़ल के शेर को बार-बार दुहराने की प्रथा थी लेकिन तब इसे क़व्वाली नहीं समाअ कहा जाता था। महफ़िल-ए-समाअ का प्रचलन हिंदुस्तान के सूफ़ी ख़ानक़ाहों में बहुत पहले से
बेदम शाह वारसी और उनका कलाम
सूफ़ी संतों के कलाम भाव प्रधान होते हैं इसलिए जीवन पर अपनी गहरी छाप छोड़ जाते हैं. एक दिन दरगाह निज़ामुद्दीन औलिया में बैठा मैं क़व्वाली सुन रहा था. अक्सर देश भर से क़व्वाल हाज़िरी लगाने हज़रत की दरगाह पर आते हैं और कुछ कलाम पढ़ कर, महबूब-ए-इलाही के
दारा शिकोह और बाबा लाल बैरागी की वार्ता
रोज़ ए अजल से इस जहान ए फ़ानी के अर्श पर गर्दिश करती आत्मा की यह पतंग उस दिन फिर वक़्त की आँधी मे टूट कर ज़मीन पर आ गिरी। इस पतंग ने उन खुदा के बंदों को देखा है जिन्होने इसे इश्क़ की डोर से बांध कर कन्नी दी और पतंग को दोबारा अर्श पर पहुंचाया । आज फ़िर यह
बिहार के प्रसिद्ध सूफ़ी शाइर – शाह अकबर दानापुरी
सूफ़ी-सन्त नदी के घाटों की तरह होते हैं जिन से हो कर ईश्वरीय कृपा का पानी हर पल बहता रहता है और इस पानी से हर प्यासे की प्यास बुझती है। इन घाटों के नाम अलग-अलग होते हैं, इनकी सजावट अलग अलग होती है परन्तु बहने वाला पानी सब घाटों पर एक ही होता है, और इस
औघट शाह वारसी और उनका कलाम
हिन्दुस्तान की सूफ़ी भक्ति परम्परा कई मायनों में इसे ख़ास बनाती है.सूफ़ियों और भक्ति कवियों ने अपने अपने क्षेत्र के प्रचलित प्रतीकों का अपने काव्य में प्रयोग किया और प्रेम और सद्भावना के सन्देश को आ’म किया. यही कारण है कि हिन्दुस्तान में तसव्वुफ़ और
मौलाना जलालुद्दीन रूमी
मौलाना जलालुद्दीन रूमी (1207-1273 ई.) विश्व के सर्वाधिक पढ़े और पसंद किये जाने वाले सूफ़ी शाइर हैं। इनकी शाइरी में रचनात्मक और भावनात्मक रस का प्रवाह इतना बेजोड़ है कि इसकी समता सूफ़ी शाइरी का कोई शाइर न कर पाया। प्रसिद्ध है – मसनवी–ए-मौलवी-ए-मा’नवी हस्त
सूफ़ी क़व्वाली में महिलाओं का योगदान
सूफ़ी हिंदुस्तान में प्रेम का सूई-धागा लेकर आए थे और क़व्वाली के रूप में सूफ़ियों ने हिंदुस्तानी संस्कृति के हाथ में एक ऐसा दीपक दिया है जिसकी लौ तेज़ आंधियों में भी मद्धम नहीं पड़ी। क़व्वाली का यह रंगों भरा सफ़र आज भी बदस्तूर जारी है और आज के इस माहौल
उर्स के दौरान होने वाले तरही मुशायरे की एक झलक
सूफ़ी दरगाहों पर उर्स के दौरान कई रस्में होती हैं जिनका ज़िक्र गाहे-ब-गाहे होता रहता है. उर्स अक्सर दो या तीन दिनों तक मनाया जाता है जिसमें सूफ़ी मुशायरों का आयोजन भी आ’म है . कुछ दरगाहों पर तरही मुशायरों का आयोजन भी किया जाता था जिसमे एक तरही मिसरा
ईद वाले ईद करें और दीद वाले दीद करें
ईद का शाब्दिक अर्थ सूफ़ी किताबों में कुछ यूँ मिलता है- (मुसलमानों के त्यौहार का दिन; हर्ष; ख़ुशी) ׃सूफ़ी के हृदय पर जो तजल्लियाँ वारिद होती हैं, वह उसके लिए ‘ईद’ हैं. सूफ़ी-संतों के प्रतीकों में ईद का एक महत्वपूर्ण स्थान है. ईद का दिन पूरे महीने रोज़े
कबीर और शेख़ तक़ी सुहरवर्दी
कबीर भारतीय संस्कृति के एक ऐसे विशाल वट वृक्ष हैं जिसकी छाया में भारतीय संस्कृति, दर्शन एवं परंपरा को फलने फूलने का अवसर मिला तथा जिसकी इस शीतल छाया के कारन ही भारतीय संस्कृति धर्मान्धता की प्रचंड गर्मी से बची रही और आपसी भाईचारे, धर्म-सहिष्णुता एवं
Fawaid-ul-Fawaad (Morals For The Heart) – Book review
तसव्वुफ़ में साहित्य के विशाल भंडार को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है । मक्तूबात (पत्र ), तज़किरा (जीवनवृत) एवं मल्फ़ूज़ात (उपदेश)। मक्तूबात के अंतर्गत उन पत्रों का संकलन आता है जो सूफी संतों ने अपने मुरीदों और समकालीन संतों को लिखे हैं ।