Sufinama
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अहमद

1603 - 1639 | भारत

अहमद के दोहे

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'अहमद' लड़का पढ़न में कहु किन झोका खाय।

तन घट बह विद्या रतन भरत हिलाय हिलाय।।

गुपुत प्रकट संसार मधि जो कछु बिधना कीन।

अगम अगोचर गुन प्रकट रोम रोम कहि दीन।।

गमन समय पटुका गह्यो, छाड़हुँ कह्यो सुजान।

प्रान पियारे प्रथम की पटुका तजौं कि प्रान।।

गुन चाहत औगुन तजत, जगत बिदित ये अङ्क।

ज्यों पूरन ससि देखि के, सब कोऊ कहत कलंक।।

करै जु करम अनेक ना बहै करम की रेह।

किये विधाता गुन प्रकट रोम रोम सब देह।।

लिख्यो जु करम लिलाट विधि रोम रोम सब ठौर।

सुख दुख जीवन मरन को करे जुगुन कछु और।।

प्रीतम नहीं बजार में, वहै बजार उजार।

प्रीतम मिलै उजार में, वहै उजार बजार।।

मन में राखो मन जरै, कहौ तौ मुख जरि जाव।

अहमद' बातन बिरह की, कठिन परी दुहुँ भाय।।

कहि 'अहमद' कैसे बने, अनभावठ को संग।

दीपक के मन में नही, जरि जरि मरै पतंग।।

कहा करौं बैकुण्ठ लै, कल्प वृक्ष की छाँह।

'अहमद' ढांक सुहावने, जहं प्रीतम गलबाँह।।

'अहमद' अपने चोर को सब कोउ डारत मार।

चोर मिलै मो चित्त को तन मन डारौ बार।।

'अहमद' या मन सदन में, हरि आवे केहि वाट।

बिकट जुरे जौ लौ निपट, खुले कपट कपाट।।

अंजलि समुद उलीचिते, नख सों कटे सुमेर।

काहू हाथ आवई, काल करम को फेर।।

नर बिन नारि सोहिए नारी बिन नर हीन।

जैसे ससि बिन निसि अवर, निसि बिन चंद मलीन।।

अहमद' गति अवतार की, कहत सबै संसार।

बिछुरे मानुष फिर मिलै, यहै जान अवतार।।

'अहमद' नग नहि खोलिये या कलि खोटे हाट।

चुपकि मुटरियां बांधिये, गहिये अपनी बाट।।

प्रेम जुवा के खेल में 'अहमद' उल्टी रीति।

जीते ही को हारिबो, हारे ही की जीति।।

कहि आवत सोई यथा, चुभी जो हित-चित मांहि।

अहमद' घायल नरन को, बेकलाइ फल नाहि।।

'अहमद' अपने चोर को, सब कोउ कहे हनेउ।

मो मन हरन जु मों मिलै, बार फेर जिव देउ।।

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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