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कलाम
यक़ीनन दफ़्तर कौनैन था मफ़्हूम हासिल मेंवो इक नुक़्ता जो फैला और सिमट कर रह गया दिल में
सीमाब अकबराबादी
कलाम
वो गंज-ए-हुस्न है दिल-ए-वीराँ में जल्वा-गरफ़ज़्ल-ए-ख़ुदा से दौलत-ए-कौनैन घर में है
बेदम शाह वारसी
कलाम
वही कुछ दहर में राज़-ए-निज़ाम-ए-दिल समझते हैंजो तेरे इ'श्क़ को कौनैन का हासिल समझते हैं
माहिरुल क़ादरी
कलाम
मैं बुलाऊँ तो हो तंग उस पे बिसात-ए-कौनैनऔर ख़ुद चाहे तो महफ़ूज़-ए-रग-ए-जाँ हो जाए