आँख पर अशआर
चश्म/आँखः शो’रा ने आँख
और चश्म को कसरत से इस्ति’माल किया है और इसे हासिल-ए-हुस्न क़रार दिया है और आँखों से मुतअ’ल्लिक़ तरह-तरह की तश्बीहात इस्ति’माल की हैं। चश्म-ए-मस्त, चश्म-ए-सुर्मगीं, चश्म-ए-ग़ज़ाल।हिन्दी में कंवल जैसी आँख, नयन कटोरे वग़ैरा। सूफ़िया इस हुस्न-ए-मजाज़ में हक़ीक़त का रंग देखते हैं जो कुछ यहाँ है वो उस का पर्तव है जो वहाँ है: हमः अशिया मज़ाहिर-ए-ज़ात अंद हमः अशिया मज़ाहिर-ए-सिफ़ात अंद (तर्जुमा:या’नी तमाम अशिया मज़ाहिर-ए-ज़ात हैं और तमाम अशिया मज़ाहिर-ए-सिफ़ात हैं)।
मेरी आँख बंद थी जब तलक वो नज़र में नूर-ए-जमाल था
खुली आँख तो ना ख़बर रही कि वो ख़्वाब था कि ख़्याल था
है वज्ह कोई ख़ास मिरी आँख जो नम है
बस इतना समझता हूँ कि ये उन का करम है
जान से हो गए बदन ख़ाली
जिस तरफ़ तू ने आँख भर देखा
शब-ए-वस्ल क्या मुख़्तसर हो गई
ज़रा आँख झपकी सहर हो गई
सपने में आँख पिया संग लागी।
चौंक पड़ी फिर सोई न जागी।।
जिस आँख ने देखा है उस आँख को देखूँ
है उस के सिवा क्या तेरे दीदार की सूरत
लगा कर आँख उस जान-ए-जहाँ से
न होगा अब किसी से आश्ना दिल
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सकी मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ
वो छुप गए तो आँख से तारे निकल पड़े
दिल गुम हुआ तो अश्क हमारे निकल पड़े
वो आँख मेरे लिए नम है क्या किया जाए
उसे भी आज मिरा ग़म है क्या किया जाए
आँख मिलते ही किसी मा'शूक़ से
फिर तबीअ'त क्या सँभाली जाएगी
हिजाब-ए-रुख़-ए-यार थे आप ही हम
खुली आँख जब कोई पर्दा न देखा
कहीं है आँख आ’शिक़ की कहीं दीदार-ए-जानाँ है
बहार-ए-हुस्न-इ-ताबाँ में तू ही तू है तू ही तू है
सैयाँ संग कस मोरा लागो नयनवा
आँख लगत नहीं नींद पड़त नहीं
बे-हिजाबाना वो सामने आ गए और जवानी जवानी से टकरा गई
आँख उन की लड़ी यूँ मिरी आँख से देख कर ये लड़ाई मज़ा आ गया
आह जिस दिन से आँख तुझ से लगी
दिल पे हर रोज़ इक नया ग़म है
आँख उन की फिर आलूदा-ए-नम देख रहा हूँ
ख़ुद पर उन्हें माइल-ब-करम देख रहा हूँ
हर आँख की तिल में है ख़ुदाई का तमाशा
हर ग़ुन्चा में गुलशन है हर इक ज़र्रा में सहरा
अपना बना के ऐ सनम तुम ने जो आँख फेर ली
ऐसा बुझा चराग़-ए-दिल फिर ये कभी जला नहीं
गर कहीं उस को जल्वा-गर देखा
न गया हम से आँख भर देखा
उस दर-ए-फ़ैज़ से उम्मीद बंधी रहती है
और मदीना की तरफ़ आँख लगी रहती है
अज़ल से अबद तक कभी आँख दिल की
न झपके झपकने न पाए तो क्या हो
खोल आँख अपनी देख अयाँ हक़ का नूर है
हर बर्ग व हर शजर में उसी का ज़ुहूर है
लेने वाले अपनी आँखों से लगा लेते हैं उसे
आँख का तारा है संदल हज़रत-ए-मख़दूम का
तू उसी की आँख का नूर है तू उसी के दिल का सुरूर है
कि जिसे बुलंद नज़र मिली कि जिसे शुऊ'र-ए-विला मिला
इस से पहले आँख की पुतली की क्या औक़ात थी
तेरे नुक़्ता देते ही क्या क्या नज़र आने लगा
मिलाकर आँख दिल लेना है बाएं हाथ का करतब
सिवा इस के भरे हैं बे-शुमार असरार आँखों में
ऐसे निठुर से काम पड़ो है
आँख लगाय मैं जी सो गई
नहीं आँख जल्वा-कश-ए-सहर ये है ज़ुल्मतों का असर मगर
कई आफ़्ताब ग़ुरूब हैं मिरे ग़म की शाम-ए-दराज़ में
काहे तू मोसे आँख चुरावत
संमुख तोरे मैं आपै न हूँगी
तूफ़ान तनिक सुमन की बू में
समदर एक आँख के अंजो में
आँख खोल दिखते 'काज़िम' काँ
उठ गरे लागो कँवर कन्हाई
जब से लगी है आँख भी मेरी लगी नहीं
ये आतिश-ए-फ़िराक़ है रहती दबी नहीं
क्या मिरी आँख अदम बीच लगी थी ऐ चर्ख़
क्या उस ख़्वाब से तू ने मुझे बेदार अ’बस
जब सो गये तुम आँख लगाय
कैसे "तुराब" पिया को भूलूँ
नहीं खोलते आँख क्यूँ 'बेनज़ीर'
वो आता है कोई उधर देखिये
हाँ ये सरशारियाँ जवानी की
आँख झपकी ही थी कि रात गई
बड़ी चीज़ आँख है इंसान पहले आँख पहचाने
नज़र का ताड़ जाना भी तो आधी 'ऐब दानी है
श्री वृषभानु किशोरी रे लोगो
मोरी तो आँख "तुराब" सो लागी
कितने कम-ज़र्फ़ दुनिया में वो लोग हैं इक ज़रा ग़म मिला आँख नम हो गई
ग़म भी अल्लाह की इक बड़ी देन है हौसला चाहिए ज़ब्त-ए-ग़म के लिए
निगाह वालों में उस का कोई शुमार नहीं
ग़म-ए-हुसैन में जो आँख अश्क-बार नहीं
हर आँख को है तिरी तमन्ना
हर दिल में तिरी ही आरज़ू है
आँख जो देख हो गए मग़रूर
दिल पुकारा हनूज़ दिल्ली दूर
वो आँख क्या है जिस को तिरी जुस्तुजू न हो
वो दिल ही क्या है जिस में तिरी आरज़ू न हो
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere