अकमल हैदराबादी के सूफ़ी लेख
क़व्वाली ग्यारहवीं शरीफ़ और हज़रत ग़ौस पाक के चिल्लों पर
ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के चिल्लों पर क़व्वाली के रिवाज और उसकी मक़्बूलियत के बाद हिन्दोस्तान में हज़रत ग़ौस-ए-पाक के चिल्लों पर भी क़व्वाली होने लगी। हालाँकि आप समा’अ और क़व्वाली जैसी चीज़ों को अपने लिए सख़्त ना-पसंद फ़रमाते थे। आज तक बग़दाद में आपके मज़ार
तज़्किरा इस्माई’ल आज़ाद क़व्वाल
ग्यारहवीं सदी ईसवी से मौजूदा बीसवीं सदी तक क़व्वाली ने कई मंज़िलें तय कीं लेकिन ये फ़न मज़हबी इजारा-दारों के तसल्लुत से उस वक़्त मुकम्मल तौर पर आज़ाद हुआ जब1940 से1950 के दरमियान इस्माई’ल आज़ाद ने इस फ़न में अ’वामी दिल-चस्पियों के रिवायात-शिकन इज़ाफ़े किए। इस्माई’ल
क़व्वाली में तसव्वुफ़ की इबतिदा और ग़ैर मुस्लिमों की दिलचस्पी और नाअत की इबतिदा
तसव्वुफ़ एक ऐसा मौज़ू’ है जिसमें सारी ख़ल्क़ को ख़ालिक़ की जानिब रुजू’ होने का पैग़ाम दिया जाता है, इस में मज़हब की तख़्सीस नहीं होती। तसव्वुफ़ की इस ला-महदुदियत के बा’इस बे-शुमार ग़ैर मुस्लिम भी क़व्वाली में दिल-चस्पी लेने लगे। क़व्वाली में ना’त की इब्तिदा फ़ारसी
समा के आदाब-ओ-मवाने से का इनहराफ़
हज़रत जुनैद बग़्दादी के समा’अ से आख़िरी उम्र में किनारा-कशी इख़्तियार कर लेने के बा’द समा’अ के मुअय्यिदीन में हुज्जत-उल-इस्लाम हज़रत इमाम ग़ज़ाली को सब पर फ़ौक़ियत हासिल है । आपने न सिर्फ़ समा’अ की ताईद फ़रमाई बल्कि उसके आदाब-ओ-मवाने’ भी मुक़र्रर फ़रमाए जिनकी
क़व्वाली के आर्गेनाईज़र्स
फुनून-ए-लतीफ़ा के हर ''शो' के लिए किसी न किसी तिजारती या समाजी तंज़ीम की सख़्त ज़रूरत होती है लेकिन मौजूदा अ’ह्द में' आर्गनायज़र्स' की एक ऐसी जमाअत वुजूद में आई है जो ब-ग़ैर किसी इदारे या तंज़ीम के फ़र्दन फ़र्दन कमर्शियल शोज़ का एहतिमाम करती है और साल-हा-साल
क़व्वाली में ताली जुज़ु लाज़िम है
मर्द की ताली शरी’अत-ए-इस्लाम में मम्नूअ है, चुनांचे नमाज़ में इमाम की भूल पर औरतों को तो नर्म ताली की इजाज़त है लेकिन मर्दों को सुब्हान-अल्लाह कहने का हुक्म है। ‘अलावा इसके क़ुर्आन की आयतों में भी ताली को सख़्त मूजिब-ए-अज़ाब क़रार दिया गया है। मा-का-ना
क़व्वाली का मजमूई तास्सुर
क़व्वाली एक टोली का गाना है और टोली चंद अफ़राद के इत्तिहाद का नाम हिन्दोस्तान में टोलियाँ बना कर भजन और लोक गीत गाने की रिवायत बहुत पुरानी है, इस में पहले तो गाने वाले ख़ुद आपस में मुत्तहिद होते हैं, उनके बाद सुनने वाले भी इस टोली से हम-आहंग हो जाते हैं,
क़ौल, क़ल्बाना, नक़्श, गुल, तराना, छंद और रंग
क़ौल, क़ल्बाना, नक़्श, गुल, तराना, छंद और रंग क़व्वाली के मुख़्तलिफ़ रूप हैं जिनमें क़ौल-ओ- क़ल्बाना उनकी तरज़ें अ'रबी कलाम पर, नक़्श-ओ-गुल की फ़ारसी कलाम पर और छंद दरंग की तरज़ें उर्दू हिन्दी कलाम पर मुश्तमिल हैं। तराना अपनी जगह एक रंग और मुकम्मल तर्ज़
क़व्वाली के क़दीम-ओ-जदीद मुक़ाबले
क़व्वाली के मुक़ाबलों : क़व्वाली के फ़नकारों में मुक़ाबलों का रिवाज बहुत पुराना है लेकिन ज़माना-ए-क़दीम में क़व्वाली के फ़नकार इसी क़िस्म की मुक़ाबला-बाज़ी का मुज़ाहरा करते थे जैसे मूसीक़ी के और फ़नकार मूसीक़ी की महफ़िल में एक दूसरे पर सब्क़त ले जाने के लिए एक दूसरे
क़व्वाली और सहाफ़त
सहाफ़त में मज़हबिय्यात के लिए बहुत कम गुंजाइश है और बद-नसीबी से क़व्वाली ‘उमूमन मज़हबी कालम में शुमार की गई, इसलिए सहाफ़त ने उसे इतना ही मौक़ा' दिया जितना कि एक मज़हबी मौज़ू' को दिया जा सकता था, क़व्वाली की फ़न्नी, तफ़रीही-ओ-क़ौमी इफ़ादियत सदियों चश्म-ए-सहाफ़त
तज़्किरा पद्म श्री अ’ज़ीज़ अहमद ख़ाँ वारसी क़व्वाल
फ़नकार अपने मुल्क की तहज़ीब-ओ-तमद्दुन का नुमाइंदा होता है और तहज़ीब-ओ-तमद्दुन किसी मुल्क की सदियों पुरानी रिवायात का नाम है, अगरचे कि तरक़्क़ी-पसंद अफ़राद रिवायात से चिमटे रहने के बजाय नई सम्तें मुत’अय्यन कर के, अपने आपको ‘अस्र-ए-हाज़िर से हम-आहंग करने
क़व्वाली के मूजिद
सारी दुनिया इस बात पर मुत्तफ़िक़ है कि क़व्वाली हज़रत अमीर ख़ुसरो की ईजाद है,’अह्द-ए-ख़ुसरो से पहले जहाँ कहीं उर्दू किताबों में क़व्वाली का लफ़्ज़ मिलता है वो किताबें अमीर ख़ुसरो के ‘अह्द के बाद ‘अरबी-ओ-फ़ारसी से तर्जुमा की हुई हैं, जिनमें ‘अरबी लफ़्ज़ ''समाअ'
नाटक और ड्रामों में क़व्वाली की इब्तिदा
ड्रामा यूनानी ज़बान का लफ़्ज़ है, जिसके मा’नी हैं ''करके दिखाना 'या’नी लिखे हुए वाक़ि’आत-ओ-तअस्सुरात को स्टेज पर अदाकाराना तौर पर कर दिखाना। ड्रामा के लिए उर्दू ज़बान में सबसे जामे’ लफ़्ज़ ''तम्सील' मौजूद है लेकिन राइज हुआ ''नाटक' का लफ़्ज़। नाटक फ़ुनून-ए-लतीफ़ा
समाअ और क़व्वाली का मक़सद-ए-ईजाद अलग अलग
अह्ल-ए-समा’अ के इर्शाद के मुताबिक़ शरी’अत तरीक़त से जुदा है और न तरीक़त शरी’अत से जुदा। लेकिन उनका कहना ये है कि शरी’अत के मुत’अय्यन कर्दा तरीक़ा-ए-‘इबादत के तहत इन्सान जिस्मानी ज़ाहिरी हद तक रुजू’अ-ए-‘इबादत होता है और तरीक़त में ज़ाहिरी-ओ-जिस्मानी हरकात-ओ-सकनात
रेडियो और क़व्वाली
हिन्दोस्तान में रेडियो बीसवीं सदी के इब्तिदाई दहों में पहुंचा, यही वो ज़माना था जबकि क़व्वाली मज़हबी चोला उतार कर तफ़रीही रूप धारण कर रही थी लेकिन रेडियो ने इसके बदलते हुए रूप को ईब्तिदाअन पसंदीदा नज़र से नहीं देखा । रेडियो चूँकि हुकूमत के ज़ेर-ए-इक़्तिदार
क़व्वाली में आदाब-ए-समाअ से इन्हिराफ़ का सबब
अमीर ख़ुसरौ ने अपनी ईजाद कर्दा क़व्वाली हैं जो आदाब-ए-समा’अ को ख़ास अहमियत न दी तो ये उनके रवैय्या की कोई पहली और वाहिद मिसाल नहीं है। वो एक पाया के दीनदार होने के बावुजूद दुनिया के एक माने हुए मूसीक़ार भी थे। उन्होंने बे-शुमार राग ताल ठेके और साज़ ईजाद किए
मूजिद-ए-क़व्वाली
मशाहीर अह्ल-ए-क़लम इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि क़व्वाली की तर्ज़ अमीर ख़ुसरो की ईजाद है। अहद-ए-ख़ुसरो से पहले जहाँ कहीं क़व्वाली का ज़िक्र आया है वो क़व्वाली नहीं बल्कि ''समा’अ' था लेकिन क़व्वाली की ईजाद के बा’द समा’अ का तर्जुमा लफ्ज़-ए-क़व्वाली से कराया गया,
क़व्वाली की इब्तिदाई ज़बान और नस्र में तराने के बोल
क़व्वाली की इब्तिदाई ज़बान अरबी है जो नस्र पर मुश्तमिल थी। नस्र कलाम-ए-मौज़ूं नहीं और मौसीक़ी मुतक़ाज़ी है कलाम मौज़ूँ की। मौसीक़ी के इस रंग के तहत ख़ुसरो ने क़व्वाली में इब्तिदा ही से' तराने' के बोल जोड़ दिए ताकि रागनी की शक्ल भी न बिगड़े और अक़्वाल भी जूँ के
क़व्वाली का अहद-ए-ईजाद और समाजी पस-ए-मंज़र
मूजिद-ए-क़व्वाली हज़रत अमीर ख़ुसरो का ‘अह्द इब्तिदा-ए-इस्लाम और मौजूदा ‘अह्द के ठीक दरमियान का ‘अह्द है और क़व्वाली का ‘अह्द-ए-ईजाद अमीर ख़ुसरो के अह्द-ए-हयात 1253 ता 1325 के ठीक दरमियान का ‘अह्द है जब कि हिन्दोस्तान पर ख़िल्जी ख़ानदान का इक़्तिदार था और इस
क़व्वाली की ईजाद-ओ-इर्तिक़ा
किसी फ़न की ईजाद-ओ-इर्तिक़ा के बारे में क़लम उठाना उस वक़्त आसान होता है जबकि हम उसकी ईजाद-ओ-इर्तिक़ा के ‘ऐनी शाहिद हों या उसके मुशाहिदीन तक हमारी रसाई हो या कम अज़ कम इतना हो कि इस फ़न पर कुछ मा’लूमाती किताबें हमें मूयस्सर हों। क़व्वाली का फ़न इन तीनों चीज़ों
क़व्वाली और मूसीक़ी
क़व्वाली की बुनियाद मूसीक़ी पर नहीं बल्कि शाइ’री पर है या'नी अल्फ़ाज़-ओ-मआ’नी पर लेकिन क़व्वाली चूँकि मूसीक़ी के न बन जाने के सदियों बा’द की ईजाद है, इसलिए इसमें अमीर ख़ुसरो ने मूसीक़ी के बुनियादी उसूलों का भी ख़ास लिहाज़ रखा, जिसकी बिना पर आ’म आशिक़ान-ए-मूसीक़ी
क़व्वाली में तबला शामिल
क़ौल, कलबाना, नक़्श, गिल और तराना क़व्वाली की मुख़्तलिफ़ तरज़ें हैं और ये बात साबित होती है कि तबला क़ौल और तराना की ज़रूरीयात के तहत ही ईजाद किया गया, चुनांचे इस ज़िमन में डाक्टर ज़हीरउद्दीन मदनी का बयान है कि ''ख़ुसरो के ईजाद करदा तरीक़ा मौसीक़ी ख़्याल, क़ौल
क़व्वाली की क़िस्में
क़व्वाली को अगर ‘आम तौर पर तक़सीम किया जाए तो दो बड़ी क़िस्मों में तक़सीम हो सकती है, पहली क़िस्म क़दीम और दूसरी जदीद जिसे हम मज्लिसी क़व्वाली और ‘अ’वामी क़व्वाली भी कह सकते हैं। क़दीम क़व्वाली : मज्लिसी क़व्वाली या’नी क़दीम क़व्वाली हम्द-ओ-सना, तसव्वुफ़, ना’त, अक़्वाल-ए-रसूल,
क़व्वाली में अक़्वाल-ए-रसूल का इस्ति’माल और अक़्वाल-ए-ख़ुसरौ का इस्ति’माल
क़व्वाली के इब्तिदाई मज़ामीन ''अक़्वाल-ए-रसूल' पर मुश्तमिल हैं या’नी उन कलिमात-ए-मुतबर्का पर जो कि आँ-हज़रत सल्लल्लाह अलैहि वसल्लम के दीन-ए-मुबारक से ‘अरबी नस्र में अदा हुए। उनमें भी ख़ुसूसियत के साथ वो अक़्वाल मुंतख़ब किए जाते थे जिनमें हज़रत ‘अली–ए-मुर्तज़ा
फ़िल्मों में क़व्वाली के फ़नकार
फ़िल्मों में जब क़व्वाली के आइटम पसंद किए जाने लगे तो उनमें दुनिया-ए-क़व्वाली से मशहूर फ़नकारों को पेश किया जाने लगा जिनमें इस्माई’ल आज़ाद, अ’ब्दल रब चाऊश, शंकर शंभू, यूसुफ़ आज़ाद, जानी बाबू और अ’ज़ीज़ नाज़ाँ को ज़्यादा मक़बूलियत मिली लेकिन अदाकाराना सलाहियत
क़व्वाली के अहम मराकिज़
दुनिया-भर में क़व्वाली के अहम मराकिज़ : क़व्वाली की तर्ज़ आज दुनिया-भर में मक़बूल हैं लेकिन ख़ुसूसियत के साथ हिन्दोस्तान और पाकिस्तान उस के ख़ास मराकिज़ हैं, इन दो ममालिक के अ’लावा हिंदूस्तानियों और पाकिस्तानियों की कसीर आबादी के बाइ’स अब इंगलैंड, कुवैत,
क़व्वाली और हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का मौक़िफ़
सूफ़िया-ए-किराम तमाम इन्सानों में अल्लाह के वुजूद के क़ाइल हैं, लिहाज़ा वो बिला- तफ़्रीक़-ए-मदारिज-ओ-मज़ाहिब तमाम इन्सानों से मुहब्बत की ता’लीम देते हैं । वो सारी मख़्लूक़ को अल्लाह का मज़हर मानते हैं। वो ज़र्रा ज़र्रा में ख़ुदा के वुजूद पर यक़ीन रखते हैं । इस
क़व्वाली का मक़सद-ए-ईजाद
क़व्वाली के तमाम मुतअल्लिक़ात और तमाम अज्ज़ा-ए- मुरक्कब में क़ौमी यक-जहती की ख़ुसूसियात का ब-दर्जा-ए-अतम मौजूद होना और उसके मज्मूई तअस्सुरात में इन्सानी इत्तिहाद की खुसूसियात का पाया जाना और उसके मूजिद के दिल का क़ौमी यक-जहती के जज़्बात सेर होना, ये सब ऐसे
क़व्वाली और अमीर ख़ुसरौ का मौक़िफ़
मूजिद-ए-क़व्वाली हज़रत अमीर ख़ुसरो की तमाम-तर ईजादात-ओ-तस्नीफ़ात का मुताल’आ हमें इस नतीजा पर पहुँचाता है कि उनकी हर कोशिश में वहदत-ए- इन्सानियत के जज़्बात कार-फ़रमा हैं। वो हमेशा हर मज़हब, हर ‘एतिक़ाद और हर मक्तब-ए-ख़याल के इन्सानों को यक-जा करने की जिद्द-ओ-जहद
क़व्वाली के स्टेज प्रोग्राम और टिकट शो
फ़िल्मों की जगमगाहट के आगे थियटर का चराग़ जल न सका और स्टेज के जितने मक़बूल-ओ-बा-सलाहियत फ़नकार थे ।सब के सब फ़िल्म इंडस्ट्री में आ गए। स्टेज की जीती-जागती दुनिया एक तवील ‘अर्से के लिए बे-रूह हो गई लेकिन जब फ़िल्म के फ़नकारों की मक़बूलियत मे’राज को पहुँच
क़व्वाली में सितार का इस्तिमाल
मशहूर हिन्दुस्तानी साज़ सितार अमीर ख़ुसरो की ईजाद है, ज़ाहिर है ये साज़ अमीर ख़ुसरो से पहले वाले समा’अ में शामिल न रहा होगा लेकिन ख़ुसरो की क़व्वाली में ये साज़ शामिल रहा। मारूफ़ सितार नवाज़ उस्ताद अब्दुलहलीम जाफ़र ख़ाँ अपने मज़मून ''अमीर ख़ुसरो और हिन्दुस्तानी मौसीक़ी'
क़व्वाली की पहली महफ़िल
हज़रत अमीर ख़ुसरौ ने जब क़व्वाली की तर्ज़-ए-ईजाद की तो सबसे पहले उसे हज़रत निज़ामूद्दीन औलिया के दरबार में पेश किया। यहीं उस की इब्तिदा हुई। आपके दरबार से पहले जहाँ कहीं इस क़िस्म की महफ़िलों का ज़िक्र मिलता है वो ''समा’अ' की महफ़िलें थीं, क़व्वाली की नहीं ।
क़व्वाली की ज़बान
क़व्वाली का तीसरा अहम जुज़्व मुरक्कब है ज़बान। अपनी ज़रूरियात के पेश-ए-नज़र हम मौसीक़ी में जो मज़ामीन समोते हैं और मज़ामीन में जो जज़्बात पिन्हाँ होते हैं उनकी ख़ातिर-ख़्वाह तासीर के लिए ज़बान का इंतिख़ाब इंतिहाई अहमियत का हामिल है । इस इंतिख़ाब में सबसे पहले
फ़ारसी गिरह-बंदी की इब्तिदा, फ़ारसी का मंज़ूम कलाम
‘’अल्लाह हू" की तकरार और हज़रत ‘अली की तारीफ़ ही के दौर में क़व्वाली में फ़ारसी गिरह-बंदी का सिलसिला शुरू’ हो गया था। गिरह से मुराद ऐसे अश’आर या मिस्रा पहुँचाना है जो ज़ेर-ए-तकरार मिस्रे या लफ़्ज़ के मा’नी-ओ-मफ़्हूम की वज़ाहत के साथ साथ उसके पैदा-कर्दा असर
क़व्वाली के इब्तिदाई साज़, राग ताल और ठेके
क़व्वाली के इब्तिदाई साज़ों की तफ़्सील किसी एक मज़मून या किताब से दस्तयाब नहीं होती, अलबत्ता मुख़्तलिफ़ मज़ामीन में मुख़्तलिफ़ साज़ों के हवाले मिलते हैं जिन्हें यकजा कर के लिखें तो दफ़, यक तारा, ढोल, तबला, बाँसुरी सितार और ताली के नाम गिनवाए जा सकते हैं। हज़रत
क़व्वाली और गणपति
गणपति महाराष्ट्र का एक ऐसा त्यौहार है जिसे यहाँ के हिंदू बाशिंदे हर साल चौथी चतुर्थी में इंतिहाई जोश-ओ-ख़रोश के साथ मनाते थे लेकिन अब इसकी तक़ारीब में दीगर मज़ाहिब के लोग भी शरीक होने लगे हैं। ख़ुसूसियत के साथ अब मुस्लिम नौजवान ज़्यादा हिस्सा लेने लगे
समा और क़व्वाली का फ़र्क़
समा’अ के लफ़्ज़ी-ओ-मजाज़ी मानी : समा’अ अरबी ज़बान का एक ‘आम लफ़्ज़ है जिसके लफ़्ज़ी मानी हैं सुनना, इसी मुनासबत से लफ़्ज़-ए-समा’अ की तश्कील हुई जिसके मजाज़ी मानी राग का सुनना लिए जाते हैं। समाअ’ के इस्तिलाही मा’नी: क़ुर्आनी इस्तिलाहात में समा’अ से मुराद
क़व्वाली में ख़वातीन से मुक़ाबले
बीसवीं सदी छठी दहाई में जब पहली ख़ातून क़व्वाल शकीला बानो भोपाली ने क़व्वाली के मैदान में क़दम रखा तो मुक़ाबलों की दुनिया में एक हलचल सी मच गई, मर्दों और ‘औरतों का पहला मुक़ाबला शकीला बानो भोपाली और इस्माई’ल आज़ाद के दरमियान 1945-में हुआ, हुस्न-ओ-इ’श्क़ की
क़व्वाली के ग्रामोफ़ोन रिकार्डर
थॉमस एडीसन की ईजाद ग्रामोफ़ोन और रिकार्ड साज़ी की इब्तिदा हिन्दोस्तान में उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दौर में उस वक़्त हुई जब दिल्ली में ''इंडियन ग्रामोफ़ोन ऐंड टाइपराइटर कंपनी' के नाम से एक इदारे की बिना पड़ी । उसके बा’द बीसवीं सदी में कोलंबिया, टोइन और हिज़
क़व्वाली में तशरीह का इज़ाफ़ा
क़व्वाली के बेशतर सामिईन उर्दू के मुश्किल अल्फ़ाज़ को समझने में दुशवारी महसूस करते हैं, जिससे शे’र के मफ़हूम तक पहुंचने की गुंजाइश नहीं निकलती और इस तंगी से लुत्फ़-ए-शे’र ज़ाए’ हो जाता है। सामिईन की इस कमी को दूर करने के लिए शकीला बानो भोपाली ने 1956 में
तज़्किरा जानी बाबू क़व्वाल
जानी बाबू एक सुरीली, मीठी और पुर-कशिश आवाज़ के मालिक हैं। उनकी तबीअ’त में मूसीक़ी ऐसे कूट कूट कर भरी हुई है, जैसे पैमानों में लबालब शराब कि जिसे ज़रा सी जुंबिश हुई और छलक पड़ी। ये वो ने’मत है जो दूसरे क़व्वालों को कम ही मुयस्सर हुई। जानी इस ने’मत की क़द्र
क़व्वाली का ‘अह्द-ए-ईजाद और मक़्सद-ए-ईजाद
क़व्वाली की ईजाद अमीर ख़ुसरो के ‘अह्द-ए-हयात 1253 ता 1325 के ठीक दरमियान का ‘अह्द है, जब कि हिन्दोस्तान पर खिल्जी ख़ानदान का इक़्तिदार था। अमीर ख़ुसरो की ख़ामोशी के बा’इस क़व्वाली के मक़्सद-ए-ईजाद की बह्स बेहद पेचीदा हो गई। वो एक सच्चे फ़नकार होने के साथ साथ
मयार समाअ बतदरीज क़व्वाली के अहद-ए-ईजाद तक
समा’अ दूसरी सदी हिज्री की ईजाद है। हज़रत जुनैद बग़्दादी ने उसे तीसरी सदी हिज्री में इख़्तियार किया। अवारिफ़-अल-म’आरिफ़ में दर्ज है कि ‘’कहते हैं हज़रत जुनैद बग़्दादी ने समा’अ सुनना छोड़ दिया था। लोगों ने कहा आप पहले समा’अ सुनते थे। आपने फ़रमाया किसके साथ? वो
क़व्वाली में तराना के बोल
अमीर ख़ुसरो की क़व्वाली में तराना के बोल शामिल हैं, आपने क़व्वाली में सबसे पहले जो क़ौल पेश किया वो सरवर-ए-काइनात सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का हसब-ए-ज़ैल क़ौल बताया जाता है। ‘’मन कुन्तु मौलाहु फ़-अलिय्यु मौलाह' तर्जुमा: मैं जिसका मौला हूँ ‘अली भी उस के मौला
स्टेज पर क़व्वाली अपनी इन्फ़िरादियत के साथ
हिन्दोस्तान में नाटक कंपनियों की दो क़िस्में थीं। अव्वल वो जो ड्रामे पेश किया करती थीं और दोउम वो जो सिर्फ़ खेल तमाशे नाच गाना और छोटे छोटे मज़ाहिया ख़ाके पेश करती थीं। दूसरी क़िस्म की कंपनीयों ने 1890 के लग भग क़व्वाली के फ़नकारों को भी अपनी टीम में मुस्तक़िलन
ख़वातीन की क़व्वाली से दिलचस्पी और क़व्वाली में आशिक़ाना मज़ामीन की इबतिदा
हज़रत ग़ौस-ए-पाक की नियाज़ के साथ क़व्वाली की घरेलू महफ़िलों ने मुस्लिम ख़्वातीन में बे-हद मक़्बूलियत हासिल कर ली, चुनांचे अक्सर मुस्लिम घरानों में शादी, ब्याह और किसी ‘आम ख़ुशी के मौ’क़ों पर भी क़व्वाली की महफ़िलें मुन्’अक़िद की जाने लगीं, ये सिलसिला क़व्वाली
जदीद क़व्वाली पर जोश मलीहाबादी, फ़िराक़ गोरखपूरी और कैफ़ी का असर
मुशाइ’रों में शाइ’र की कामयाबी का दार-ओ-मदार अच्छे कलाम के साथ अच्छे तरन्नुम या तहत-अल-लफ़्ज़ के अच्छे अंदाज़-ए-अदा पर होता है। तहत–अल-लफ़्ज़ पढ़ने वालों में जोश मलीहाबादी, फ़िराक़ गोरखपूरी और कैफ़ी आ’ज़मी का अंदाज़ अ’वाम में बे-पनाह मक़बूल हुआ। जोश मलीहाबादी
टेलीविज़न पर क़व्वाली की इब्तिदा
हिन्दोस्तान में टीवी बीसवीं सदी के छठी दहाई में आया। यहाँ सबसे पहले इसकी इब्तिदा दिल्ली से हुई, दिल्ली के बा’द सातवीं दहाई में बंबई में भी इसका स्टेशन क़ाइम हो गया। दिल्ली स्टेशन सियासी-ओ-सरकारी सरगर्मियों की तश्हीर का ज़रीआ’ बना रहा। यहाँ फ़ुनून-ए-लतीफ़ा
क़व्वाली मज़ारों पर और चिल्लों पर
हज़रत निज़ामूद्दीन औलिया की वफ़ात के बा’द आपके मज़ार पर भी क़व्वाली का सिलसिला जारी रहा और उन महफ़िलों में वो ग़ैर-मुस्लिम भी शामिल रहे जो हज़रत निज़ामूद्दीन औलिया से ‘अक़ीदत रखते थे। सूफ़िया के दरबार और औलिया के मज़ारों के बाद क़व्वाली की महफ़िलें चिल्लों पर भी
समाअ और क़व्वाली के अव्वलीन सरपरस्त
हज़रत इमाम तैमिया का इर्शाद है कि अबू नस्र फ़ाराबी इब्न-ए-रावंदी और इब्न-ए-सीना ही ने इब्तिदाअन लोगों को समा’अ की तरफ़ रुजू’अ की दा;वत दी, इस इर्शाद से ये बात साबित होती है कि यही लोग समा’अ के अव्वलीन सर-परस्त रहे। फ़ाराबी फ़न्न-ए-मौसीक़ी में बे-हद माहिर
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere