कवि दिलदार के अशआर
गर आशिक़-ए- सादिक़ है उस का मत उल्फ़त तू ग़ैर से जोड़
ज़ुल्म करे या सितम करे तू इश्क़ से उस के मुँह मत मोड़
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जब इ’श्क़ आ’शिक़ बेबाक करे तब पावे अपने मतलब को
तन मन को मार के ख़ाक करे तब पावे अपने मतलब को
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गर तालिब-ए-अल्लाह हुआ है इ’श्क़ को पहले पैदा कर
प्रेम की चक्की में दिल अपना पीस पिसा कर मैदा कर
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere