आसमान पर अशआर
आसमानः फ़ारसी ज़बान का
लफ़्ज़ है।फ़ारसी क़वाइ’द के मुताबिक़ ‘आस’ के साथ ‘मान’ बतौर-ए-लाहिक़ा लगा कर ‘आसमान’ बना है।उर्दू में सबसे पहले 1421 ई’स्वी में बंदा-नवाज़ के क़लमी नुस्ख़ा “शिकार-नामा” में इसका इस्ति’माल मिलता है। ख़ला या फ़ज़ा-ए-बसीत में वो नीलगूं हद्द-ए-नज़र जो गुंबद की तरह चारों तरफ़ से ज़मीन का इहाता किए हुए दिखाई देता है आसमान कहलाता है। सूफ़ी शो’रा ने आसमान को कैसे बरता है इसका नमूना यहाँ मुलाहिज़ा करें।
दुआ’ लब पे आती है दिल से निकल कर
ज़मीं से पहुँचती है बात आसमाँ तक
जब क़दम रखा ज़मीं पर आसमाँ पर जा पड़ा
बारहा हम ने किया है इम्तिहान-ए-कू-ए-दोस्त
उस सरवर-ए-दीं पर जान फ़िदा की जिस ने नमाज़-ए-इ’श्क़ अदा
तलवारों की झंकारों में और तीरों की बौछारों में
ज़मीं के सर पे खुला आसमान रहने दे
ख़ुदा के वास्ते अम्न-ओ-अमान रहने दे
ज़मीं है आसमाँ भी उस के आगे
अ’जब बरतर मदीने की ज़मीं है
ज़मीं से आसमाँ तक आसमाँ से ला-मकाँ तक है
ख़ुदा जाने हमारे इ’श्क़ की दुनिया कहाँ तक है
वो चमका चाँद छटकी चाँदनी तारे निकल आए
वो क्या आए ज़मीं पर आसमाँ ने फूल बरसाए
यही जो सौदा है मुझ हज़ीं का पता कहाँ कू-ए-नाज़नीं का
ग़ुबार-आसा नहीं कहीं का न आसमाँ का न मैं ज़मीं का
अगर चाहूँ निज़ाम-ए-दहर को ज़ेर-ओ-ज़बर कर दूँ
मिरे जज़्बात का तूफ़ाँ ज़मीं से आसमाँ तक है
मुझे नाशाद कर के आसमाँ राहत न पाएगा
मुझे बर्बाद कर के ख़ाक छानेगी ज़मीं बरसों
शब-ए-ग़म देखता हूँ उठ के हर बार
वही है या कोई और आसमाँ है
ज़र्रे को ले के फिरता है ये आसमान में
है 'इश्क़ से 'अज़ीम कोई शय जहान में
बस में तिरे ज़मीं है क़ब्ज़े में आसमाँ है
ऐ दो-जहाँ के मालिक मेरा निशाँ कहाँ है
बाग़-ए-आ’लम में हमें फूलने-फलने न दिया
आसमाँ ने कोई अरमाँ निकलने न दिया
राएगाँ 'हसरत' न जाएगा मिरा मुश्त-ए-ग़ुबार
कुछ ज़मीं ले जाएगी कुछ आसमाँ ले जाएगा
वो क्यूँ बिगड़े मिरे शोर-ए-फ़ुग़ाँ से
शिकायत उन से थी या आसमाँ से
'रियाज़' मौत है इस शर्त से हमें मंज़ूर
ज़मीं सताए न मरने पे आसमाँ की तरह
सरगर्म-ए-क़त्ल कब बुत-ए-ना-मेहरबाँ नहीं
प्यासा मिरे लहू का फ़क़त आसमाँ नहीं
जो ज़मीं पर फ़राग़ रखते हैं
आसमाँ पर दिमाग़ रखते हैं
निकल कर तेरे कूचे से गुज़र मेरा जहाँ होगा
हज़ारों आसमाँ होंगे वहाँ एक आसमाँ होगा
ये आहें हैं मेरी ये नाले हैं मेरे
जिन्हें आसमाँ आसमाँ देखते हैं
जब नज़र उस की पड़ी हम आसमाँ से गिर पड़े
उस के फिरते ही जहाँ ये हम से सारा फिर गया
दिल तो और ही मकाँ में फिरता है
न ज़मीं है न आसमाँ है याद
कू-ए-जानाँ भी न छोड़ा ख़ाना-वीरानी के बा'द
देखना है अब कहाँ ये आसमाँ ले जाएगा
देख कर आसमाँ को हम तो ज़मीं में गड़ गए
जब न कहीं जगह मिली आप की बज़्म-ए-नाज़ में
तिरी राह में जो फ़ना हुए कहूँ क्या जो उन का मक़ाम है
न ये आसमान है न ये ज़मीं न ये सुब्ह है न ये शाम है
आराम हो सुकून हो सारे जहान को
जुम्बिश न हो ज़मीं की तरह आसमान को
इ’श्क़-ए-ला-महदूद जब तक रहनुमा होता नहीं
ज़िंदगी से ज़िंदगी का हक़ अदा होता नहीं
वो लहर हूँ जो प्यास बुझाए ज़मीन की
चमके जो आसमाँ पे वो पत्थर नहीं हूँ मैं
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere